प्रोफेसर से लेकर जंगल में बच्चों के फटे कपड़े सिलने तक डॉ. पीडी खेरा की कहानी.. आज प्रथम पुण्यतिथि है..
वैसे तो हमारे में समय समय पर ऐसी हस्तियों ने जन्म लिया जिन्होंने अपने त्याग तप और सेवा भाव से समाज को नई दिशा दिखलाई.. जीवनभर सरल रहकर खुद को जो लोग मानवता की सच्ची सेवाभाव में लगाते है वो अपने जीवन से बहुत कुछ नहीं मांगते.. कहने का तात्पर्य है कि.. खुद की असीम सुविधाओं को छोड़कर अन्य के उत्थान के लिये काम करने वाला व्यक्ति ही ईश्वर की सच्ची सेवा करता है.. हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि आज हमारे रोल मॉडल ऐसी विधाओं से आते हैं जहाँ जमकर राजनीतिक और एकात्महित की धारणाएं हावी है.. बहरहाल आज हम जिनकी बात कर रहे है आज उनकि प्रथम पुण्यतिथि है.. अपने जीवन को त्याग और सेवा के चरम पर पहुंचाने वाले डॉ. पीडी खेरा आज हमारे बीच नहीं है लेकिन सुदूर वनांचल में उनकी शिक्षा और उनका नाम आज भी बड़े आदर के साथ लिया जा रहा है..
कौन थे दिल्ली वाले बाबू..
स्वर्गीय डॉ. प्रभुदत्त खेरा दिल्ली यूनिवसिर्टी में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत थे.. स्व डॉ. खेरा का जन्म 1928 में पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था.. बंटवारे के बाद दिल्ली वाले साहब का परिवार दिल्ली आ गया और यही रहकर उन्होंने पढ़ाई की.. पढ़ाई के बाद एनसीआरटीई में काम भी किया, इसके बाद उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के पद पर पढ़ाना शुरू किया, स्व. खेरा गणित में एमएससी और समाजशास्त्र में एमए के साथ पीएचडीधारी भी थे.. 1983 के वक्त डॉ. प्रभुदत्त खेरा छात्र मंडल के साथ शैक्षणिक टूर के लिए तत्कालीन बिलासपुर के अचानकमार जंगल के सुदूर वनांचल ग्राम लमनी में आएं थे.. लेकिन यहां बैगा आदिवासियों की स्थिति देखकर व्यथित हक गए और यहीं रुकने का फैसला कर लिया.. छात्रों का मंडल तो वापस चला गया लेकिन डॉ. खेरा लमनी और छपरवा के बैगा आदिवासियों के होकर रह गए थे..
अपने पैसे से स्कूल बनवाया बैगा आदिवासी बच्चों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ा..
स्वर्गीय डॉक्टर प्रभु दत्त खेरा 1983 के जिस शैक्षणिक टूर में सुदूर वनांचल मे बैगा आदिवसियों पर रिसर्च करने पहुंचे थे उनकी दर्शाने दिल्ली वाले सांप को वहीं रुकने पर मजबूर कर दिया था.. शैक्षणिक टूर पर आए विद्यार्थियों को वापस भेजने के बाद प्रभु दत्त खैराने लव मी पर ही एक झोपड़ी बनाकर रहना शुरू कर दिया और अपने पैसों से छपरवा में स्कूल बनवाया सुबह अपना काम जल्दी समेट कर वे पैदल ही स्कूल के लिए निकल जाते थे, और स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ बैगा आदिवासियों के बच्चों की फोटो कपड़े भी सिलते थे.. प्रभुदत्त खेरा साहब बड़े ही स्वाभिमानी व्यक्तित्व वाले इंसान रहे.. उम्र ढलने के बाद भी जब आस पड़ोस के लोग उन्हें शाम को चाय पिलाते तो उनका कहना रहता कि.. आप लोगों का भी मेरी आदत बिगाड़ रहे हो बाद में मुझे इससे तकलीफ होगी बैगा आदिवासियों के प्रति उनका यह समर्पण किसी भी समर्पण से अधिक मूल्यवान होगा..
दो खादी के कपड़े और दो थैला एक टूटी चारपाई और इंसानियत मूरत थी डॉ. पीडी खेरा की संपत्ति..
दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर पद पर कार्यरत स्वर्गीय प्रभु दत्त खेरा ने अपना पूरा जीवन बैगा आदिवासी इन लोगों के बीच उनके उत्थान में काम करते हुए बिता दिया.. 93 वर्षीय प्रभु दत्त खेड़ा के पास संपत्ति के नाम पर केवल सुदूर वनांचल के ग्राम पंचायत लमनी में एक झोपड़ी उसमें रखी टूटी चारपाई दो खादी के उनके साथ जरा साहब के कंधे पर हमेशा दिखने वाले थैला और खेरा साहब की ओजस्वी मानवता की छवि थी.. बैगा आदिवासियों के बच्चों के लिए दिल्ली वाले साहब को सही बात तपती गर्मी में अब बिलासपुर की सड़कों पर पैदल चलते देखा गया.. बिना बताए बिना जताए सेवा भाव से अपना सर्वस्व निछावर करने वाले बैगा आदिवासियों के गांधी डाक्टर पी.डी खेरा भले ही आज उनके बीच नहीं है.. लेकिन उनकी दी हुई शिक्षा आदिवासियों में प्रसारित हो रही है उनके बढ़ाएं हुए कई बच्चे आज शहर पर मुख्यधारा से जुड़ कर मुस्कुरा रहे हैं और कई आज भी उनके बनाए हुए स्कूलों पर उन्हीं की राह पर चलते हुए बैगा आदिवासियों के जीवन सुधार पर काम कर रहे हैं.. सही मायनों में कहा जाए तो.. बैगा आदिवासियों के दिल्ली वाले साहब स्वर्गीय डॉक्टर पीडी खैरा सच्चे गांधीवादी थे.. जिन्होंने अपना जीवन पूरी इमानदारी से दूसरों के जीवन उत्थान के लिए समर्पित कर दिया..
निधन पर रोया था अचानकमार, जगह जगह हाथ जोड़े आसूं लिए आखिरी दर्शन को खड़े थे लोग..
उम्रदराज होने के बाद डाक्टर पीडी खेरा को शारीरिक रूप से बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था और 93 साल की उम्र आते आते तबीयत भी नासाज होने लगी थी इसी दौरान उन्हें इलाज के लिए बिलासपुर के अपोलो अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहां लंबे इलाज के बाद पिछले साल 23 सितंबर 2019 को उनका निधन हो गया था उनका अंतिम संस्कार उनके निवास ग्राम पंचायत लमनी पर ही किया गया.. निधन के बात जैसे ही अचानकमार के वनांचल में पहुंची तो पूरे अचानकमार के आदिवासियों में शोक की लहर दौड़ गई सभी सुबह से रास्ते भर हाथ में फूल लेकर अपने दिल्ली वाले बाबू के अंतिम दर्शन के लिए खड़े हो गए जहां जहां वाहन रोके गए वहां रोते बिलखते लोगों की आवाजें मन को झकझोर कर रख देती थी समाज ने डॉक्टर प्रभु दत्त खैरा के रूप में सिर्फ एक व्यक्तित्व को ही नहीं खोया था, वरन बैगा आदिवासियों ने अपने गांधी और पिता को भी खो दिया था..