बाइक एम्बुलेंस बंद, मासूम ने तोड़ा दम,सिस्टम की चूक पर उठे सवाल….

बिलासपुर–छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के कोटा ब्लॉक के दूरस्थ और पहाड़ी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं इन दिनों बदहाल स्थिति में हैं। बीते दस दिनों से बंद पड़ी बाइक एम्बुलेंस सेवा का खामियाजा सोमवार की रात एक मासूम की जान के रूप में सामने आया। गर्भवती महिला को समय पर अस्पताल नहीं पहुंचाया जा सका, जिससे गर्भ में ही शिशु की मौत हो गई।

बकाया भुगतान बना बड़ा रोड़ा

बाइक एम्बुलेंस सेवा में कार्यरत कर्मचारियों को कई महीनों से वेतन और पेट्रोल का भुगतान नहीं किया गया है। करीब 3 लाख रुपए की बकाया राशि के चलते कर्मचारियों ने काम करना बंद कर दिया था। बताया गया कि इन सेवाओं का खर्च पहले डीएमएफ फंड से होता था, लेकिन फंड वितरण में रुकावट के चलते सेवा ठप हो गई।

देरी ने ली मासूम की जान

सोमवार रात बहरीझिरिया गांव की शांतन बाई को अचानक प्रसव पीड़ा शुरू हुई। परिजनों ने केंद्रा स्वास्थ्य केंद्र में संपर्क कर बाइक एम्बुलेंस की मांग की, लेकिन जवाब मिला कि सेवा बंद है। काफी प्रयासों के बाद 102 एम्बुलेंस को बुलाया गया, जो आधी रात को पहुंची, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। गर्भ में फंसे नवजात की समय पर मदद न मिलने के कारण रास्ते में ही मौत हो गई।

प्रशासनिक उदासीनता पर सवाल

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की डीपीएम प्यूली मजूमदार ने इस भुगतान संकट की जानकारी से इनकार किया, जबकि प्रभारी सीएमएचओ सुरेश तिवारी ने स्वीकारा कि वेतन न मिलने की वजह से कर्मचारी काम पर नहीं थे। उन्होंने भरोसा दिलाया कि कलेक्टर से चर्चा के बाद जल्द सेवा बहाल की जाएगी।

जनप्रतिनिधियों का आक्रोश

पूर्व जनपद अध्यक्ष संदीप शुक्ला ने प्रशासनिक लापरवाही पर नाराज़गी जताई। उन्होंने कहा कि बार-बार अधिकारियों को जानकारी देने के बावजूद कोई कदम नहीं उठाया गया। तंज कसते हुए उन्होंने कहा, “अगर सरकार सेवा नहीं चला पा रही, तो हमें बता दे, हम जनता से चंदा इकट्ठा करके एम्बुलेंस चलवा देंगे।”

एक मिसाल बन चुकी सेवा

गौरतलब है कि बाइक एम्बुलेंस सेवा की शुरुआत तत्कालीन कलेक्टर अवनीश शरण ने की थी, जिसने विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं और बच्चों की जान बचाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। आज वही सेवा प्रशासनिक लापरवाही की भेंट चढ़ चुकी है।

कहीं देर न हो जाए फिर से

इस हादसे ने सिस्टम की संवेदनहीनता को एक बार फिर सामने ला दिया है। सवाल यह है कि क्या समय रहते ज़िम्मेदारों ने कदम उठाया होता, तो क्या एक नवजात की जान बच सकती थी? अब निगाहें प्रशासन पर हैं कि वह कब तक इस ज़रूरी सेवा को फिर से शुरू करता है।

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