जनहित में फ़ैसले लेने में कलेक्टर बिलासपुर फेल,बिलासपुर तहसीलदार को हटाने में आखिर देर किस बात की
बिलासपुर- ऊपर की हेडिंग देखकर पाठक सोच रहे होंगे कि आख़िर मामला क्या है।
कल राजस्व विभाग में दो ज़िले में एक ही प्रकार की घटनाएँ हुई।
कोरबा में कलेक्टर रानू साहू ने टी एल की मीटिंग में आँकड़ो में भी कमजोर साबित हो रहे तहसीलदार सुरेश साहू को मिनटो में तबादला कर दिया कोरबा से बरपाली। जनता जनार्दन और शासन के लिए काम नहीं करने वाले तहसीलदार के ख़िलाफ़ कलेक्टर रानु साहू ने सख़्ती से निर्णय लिया और मिनटो में तबदला आदेश कर दिया। इसे कहते है प्रशासनिक सख़्ती क़ाबिलियत और जनहित में काम करने का जुनून।
अब वहीं दूसरी तरफ़ बिलासपुर में कल ही मंत्री के सामने तहसीलदार रमेश मोर के ख़िलाफ़ शिकायत कर्ताओं ने खुलकर सामने आकर शिकायत किया कि रमेश मोर ने फ़र्ज़ी आँकड़े शासन के सामने पेश करने के लिए किसानों के लगभग १२०० से ऊपर ऑनलाइन नामांतरण केस को पारित भी नहीं किया और न ख़ारिज किया बल्कि नामांतरण की आवश्यकता नहीं है लिखकर सीधे विलोपित कर दिया। जबकि ऐसा करने का नियम ही नहीं है। अब ये किसान जो तहसीलदार रमेश मोर को चढ़ावा नहीं चढ़ाए थे वो अब तहसील ऑफ़िस के दर दर भटक रहें है।
लेकिन रमेश मोर ने ऐसा क्या जादू किया कलेक्टर के ऊपर कि इतनी गम्भीर गलती के बाद एक आँच तक नहीं आया। लेकिन इसका परिणाम तो आख़िर बेचारी जनता भुगतेगी।
कलेक्टर बिलासपुर को इस शिकायत की तत्काल जाँच करवाकर तुरंत ऐक्शन लेना था। ऑनलाइन नामांतरण विलोपन के सिवाय रमेश मोर पर और भी गम्भीर आरोप लगें है जैसे मोपका में ग़लत तरीक़े से धुरी परिवार की ज़मीन को दूसरे के नाम पर चढ़ाने का मामला और भी इसी तरह से। लेकिन बिलासपुर तहसील में तीन तीन तहसीलदार होते हुए भी कलेक्टर का रमेश मोर से क्या प्रेम है वे ही जाने।
वास्तव में यदि ज़िले का मुखिया रानु साहू जैसा सक्रिय रहे और जनता की पीड़ा को समझे तो इन तहसीलदारों की मजाल है कि एक भी किसान का चप्पल घिसवां लें। बिलासपुर तहसील में चार साल तक नारायण गवेल ने नंगा नाच किया। सात हज़ार से ऊपर नामांतरण प्रकरणो को सालों सालों तक पेंडिंग रखने के बाद भी एक नोटिस तक प्रशासन ने जारी नहीं किया था। तीन साल कांग्रेस की सरकार में इस दर्द को केवल इन अधिकारियों के कारण ही भोगी। अब फिर से वही हाल तहसीलदार मोर ने कर दिया। रमेश मोर ने तो नारायण गवेल से भी एक कदम आगे जाकर केस को ही विलोपित कर दिया कि न रहेगी बांस और न बजेगी बाँसुरी। लोग अब भाजपा शासन के दिनों को याद करते हैं जब तहसील में काम कितना आसानी से और सरलता से होता था। दाल में नमक उस समय भी चलता था लेकिन अभी के वज़ीरों ने तो तानाशाही मचा कर रखी है और तहसील को निजी एजेंसी बना कर चला रहें है कि कुछ भी कर लो हमारा कुछ नहीं हो सकता।
बदहाल ए बिलासपुर।